बीएचयू : सच्ची कविता युद्ध के विरुद्ध होती है -चबूतरा गुरु

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मालवीय चबूतरा काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी पर रविवार को 'युद्ध और कविता पर बहस' सम्पन्न हुआ । बहस का विषय "हिन्दी कविता में युद्ध दर्शन" था । जिसमें चबूतरा गुरु रामाज्ञा शशिधर ने कहा - हिन्दी कविता का 1000 साल का जो इतिहास है उसके शुरुआती दौर को हम वीरगाथा काल के नाम से जानते हैं। इसे आदिकाल अथवा चारण काल भी कहा गया है । आज हम अगर अपने आसपास देखें तो ऐसे तमाम चारण और भाट मिल जाएंगे जो स्वघोषित कवि हैं। वे युद्धोन्माद में कसीदे पढ़ रहे हैं। पृथ्वीराज रासो समेत अनेक रासो काव्य युद्ध काव्य है।
भक्ति काल में  रामकाव्य से लेकर सूफी काव्य तक प्रेम और युद्ध का द्वन्द्व है जिसका परिष्कृत रूप रीति काल और आधुनिक काल में भी मिलता है ।

पृथ्वीराज चौहान और मो. गोरी के बीच भयंकर युद्ध हुआ। पृथ्वीराज रासो में इसका वर्णन किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में भी युद्ध का वर्णन है। सूफी काव्य में मुल्ला दाउद का चंदायन हो अथवा जायसी का पद्मावत इनमें भी युद्ध का वर्णन है। रीतिकाल में भी एक बड़ा हिस्सा युद्ध का ही है जिसमें मराठा और मुगल शासक के युद्ध का चित्रण हुआ है।दिनकर कृत कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी में भी युद्ध का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्य जगह भी युद्ध कविताओं में अपना विशेष स्थान रखता है।

 रामचरितमानस जो तुलसीदास द्वारा रचित है उसका सम्बन्ध वाल्मीकि रामायण से है। वाल्मीकि अपनी पहली काव्य पंक्ति ही युद्ध के विरोध में और प्रेम के समर्थन में लिखते हैं।सूफी काव्य और रामकाव्य में जहाँ प्रेम और स्त्री को केन्द्र में रखकर लड़ाई होती है वहीं रासो काव्य और महाभारत में अधिकार को लेकर लड़ाई होती है। कविता के आदि श्रोत के रुप में रामायण और महाभारत प्रतिष्ठित हैं। रामायण और महाभारत के अंत पर अगर ध्यान दिया जाय तो हम देखेंगे कि सीता (जिनके लिए युद्ध हुआ) उन्हें राज्य से बाहर निकलना पड़ा और अन्ततः धरती में स्थान मिला। राम और लक्ष्मण जिन्होंने सीता के लिए युद्ध किया उन्हें सरयू के गोद में स्थान मिला। महाभारत के युद्ध का अन्त होते-होते भी एक मात्र युधिष्ठिर ही बचते हैं और एक कुत्ता बचता है।
प्रेम और अधिकार ये दोनों तत्व कविता के आदि श्रोत के रुप में मिलते हैं। और अगर स्वतंत्र रूप से हम विचार करें तो कविता के तीन केन्द्र दिखाई देते हैं -
1-आत्म की खोज
2-अधिकार के लिए युद्ध
3-प्रेम और युद्ध का द्वन्द्व
     हमारे यहाँ कविता के कुछ अन्य श्रोत भी रहे हैं जिनमें बुद्ध,शैव और महावीर से रचनाकार प्रेरित रहे हैं। सिद्धों, जैनों और नाथों के यहाँ आत्म की खोज पर जोर दिया गया है।
      वैसे ही कबीर, मीरा आदि भक्ति की आराधना करने वालों के यहाँ आत्म की खोज को ज्यादा प्रमुखता दी गई है।
     आधुनिक काल में प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध को केन्द्र में रखकर कविताएँ लिखी गईं। दरअसल कुरुक्षेत्र द्वितीय विश्व युद्ध पर केन्द्रित कविता है। सवाल यह है कि साहित्य में युद्ध को कैसे देखने का प्रयास किया गया है? युद्ध को सही माना गया है अथवा नहीं?युद्ध भी एक विषय है तो युद्ध का दर्शन तो होगा ही। वैसे युद्ध में अन्ध दृष्टि होती है इसलिए इसे युद्ध का अन्धदर्शन माना जाना चाहिए। युद्ध के साथ एक शब्द जुड़ा रहता है - शान्ति। युद्ध के विरुद्ध शान्ति मनुष्य की खोज है।मनोविज्ञान, इतिहास, भूगोल, राजनीति सभी विषयों में युद्ध की पढ़ाई होती है। युद्ध के क्षेत्र में ऐसा काम किसी ने नहीं किया जैसा साहित्य ने किया। युद्ध के बरक्स साहित्य ने प्रेम और शान्ति को लगातार केन्द्र में लाने की कोशिश की है।हम सब पहले पशु थे, हिंसक थे। अब हम मनुष्य बने हैं।अहिंसा पर हमें विश्वास करना चाहिए। हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध है मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। अपने दूसरे निबंध 'नाखून कयों बढ़ते हैं' में उन्होंने पशुता के स्थान पर मनुष्यता को तवज्जो दिया है। दिनकर कहते हैं -
             "झर गई पूँछ, रोमान्त झरे
             पशुता का झरना बाकी है
             बाहर-बाहर तन सँवर चुका
             मन अभी सँवरना बाकी है"
जो मनुष्य साहित्य/कला से मुक्त है वह बिना पूँछ का साक्षात् पशु है। हमें मन को सँवारना होगा। हमें अपने नाखून काटने होंगे। पूँजीवाद जहाँ पहुँच चुका है वहाँ मानव साध्य नहीं साधन हो गया है। यहाँ तक कि संसाधन हो गया है। हमारी शिक्षा हजारों साल पुरानी है। उपनिषदों में मनुष्य को साध्य माना गया है। पहली बार पूँजीवाद ने मनुष्य का नाम साधन और संसाधन रखा। इसीलिए हमारे देश के शिक्षा मंत्रालय का नाम है मानव संसाधन विकास मंत्रालय। होना चाहिए मानव साध्य विकास मंत्रालय। आदमी, आदमी के लिए आज इस्तेमाल की चीज़ हो गया है। उस समय समझ का आभाव था इस समय समझ की चालाकियाँ हैं। भारत की नैतिकता और नीति कभी भी युद्ध के पक्ष में रही नहीं है। आज के दौर में पूरी पृथ्वी को सौ बार से अधिक नष्ट करने इतना परमाणु बम दुनिया के देशों के पास है। यह हमारे समाज के लिए चिन्ता का विषय है। दिनकर ने कहा है -
            "कौन केवल आत्मबल से जूझकर
             जीत सकता देह का संग्राम है,
             पाशविकता खड्ग जब लेती उठा
             आत्मबल का एक वश चलता नहीं।"
        ( वक्तव्य का संपादित एवं संक्षिप्त रूप)
      इस अवसर पर मालवीय चबूतरा पर उपस्थित छात्र छात्राओं ने भी अपनी बात रखी। कुछ ने युद्ध के दर्शन पर बात की तो किसी ने युद्ध के चित्रण पर बात की। कोई कविता में युद्ध की उपस्थिति पर बात किया तो किसी ने युद्ध को चुनौती देने वाले 'प्रेम और शान्ति' पर बात की। कई छात्रों के प्रश्न थे युद्ध क्यों होता है, किसके लिए होता है। एक छात्र ने कहा कि अभिनन्दन की वापसी के बाद यह पता चला कि आदमी की कीमत युद्ध से बड़ी है।

¶ युद्ध शान्ति के लिए होता है लेकिन यह अपने आप में एक अशांति है। इस तरह युद्ध से शान्ति की आशा व्यर्थ है।

¶हम युद्ध नहीं चाहते हैं फिर भी कुछ ऐसे असामाजिक तत्व इस पृथ्वी पर हैं जो युद्ध की स्थिति पैदा करते हैं।

¶युद्ध मानवता की हत्या करता है। चाहें भारत के सैनिक मारे जाएं या पाकिस्तान के अन्ततः युद्ध से मानवता की ही क्षति होती है। गांधी जी ने कहा था अहिंसा परमो धर्मः। स्वार्थ के लिए आज लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात है - आदमी, आदमी को मार रहा है।

¶शान्ति के लिए भी हमें शस्त्र सम्पन्न होना पड़ेगा। यदि हम शस्त्र सम्पन्न न हों तो अमन और शान्ति की बात भी करना व्यर्थ है । करेंगे भी तो कोई सुनेगा नहीं। जिसके पास शक्ति ही नहीं उसकी बात कौन सुनेगा? भारत-पाकिस्तान के बीच अगर युद्ध नहीं हो रहा है तो उसके पीछे मात्र एक कारण है कि दोनों देश न्यूक्लियर पावर से सम्पन्न हैं।

   रोहन जी सोशल साइंस डिपार्टमेंट में कनफ्लिक्ट डिबेट पढ़ते हैं। वे पीएचडी के छात्र हैं तथा पीस सेन्टर में भी ये पढ़ते-पढ़ाते हैं। उन्होंने विश्व युद्ध और युद्धों के इतिहास के साथ-साथ अमेरिका द्वारा नागासाकी, हिरोशिमा पर न्यूक्लियर अटैक तथा वियतनाम के साथ युद्ध की कहानी बताई।उन्होंने बात-चीत को किसी समस्या के समाधान का सबसे बेहतर तरीका बताया।
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