TheMatvala : शिक्षा की हार में प्रचार तंत्र की जीत है - स्वर्ण सुमन

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देश भर के विश्वविद्यालयों के छात्र फीस बढ़ोत्तरी को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। क्या उनका आंदोलन रंग ला पायेगा? सवाल जितना सरल है जवाब उतना ही मुश्किल। अगर आप पढ़-लिख लेंगे तो आप सिस्टम से सवाल करेंगे और सिस्टम कभी नहीं चाहता कि आप उससे सवाल करें। तो आखिर सिस्टम क्या चाहता है?

आप पेट्रोल पम्प, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डा, बस स्टैंड से लेकर तमाम सरकारी भवन चले जाईये आपको योजनाओं के विज्ञापन ही विज्ञापन नजर आयेंगे। आप कोई समाचारपत्र या न्यूज चैनल देखिए आपको प्रचार की शक्ल में खबरें दिखेंगी। देश तेजी से बहुलतावाद से एकलवाद की तरफ बढ़ रहा है। आप प्रचारतंत्र के एजेंडे से ऊपर कुछ सोच नहीं पा रहे हैं। न शिक्षा, न रोजगार और न भविष्य। यानी जो दिख रहा है वो बिक रहा है। ये कैसे हो रहा है इन आंकड़ों पर नजर डालिये।

केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 से 2019 तक 5,726 करोड़ रुपया (सरकारी आंकड़ा) विज्ञापन और प्रचार पर खर्च किया। इतना भारी भरकम खर्च कर वह युवाओं का विश्वास जीतने में सफल रही है। वहीं उच्च शिक्षा की फंडिंग एजेंसी 'यूजीसी' जो देश भर के सारे कॉलेज और यूनिवर्सिटी को पैसे आबंटित करती है को 2019 में मात्र 4,600 करोड़ रुपये दिया गया। उच्च शिक्षा का बजट बढ़ाने की बजाय हर वर्ष लगातार घटाया जा रहा है। घटते बजट की भरपाई करने के लिए यूजीसी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं को पूर्ण स्वायत्तता दे रही है। जिन संस्थाओं को पूर्ण स्वायत्तता दी गई है वे अपनी दाखिला प्रक्रिया, फीस की संरचना और पाठ्यक्रम तय करने के लिए स्वतंत्र है। नए नियम के तहत यूजीसी स्टेट यूनिवर्सिटी को केवल 50% फंड ही दे पाएगी बाकी 50% उसे खुद से उगाही करना होगा। सेंट्रल यूनिवर्सिटी को भी 70% फंड प्राप्त होगा और 30% उसे खुद व्यवस्था करना होगा। यानी खुद का कुआँ खोदना है खुद ही पानी पीना है। अब इस 50% और 30% का सारा भार छात्रों से वसूला जाएगा जो कोर्स फीस, फॉर्म फीस, एग्जाम फीस, मेस चार्ज, होस्टल फीस आदि तमाम फीस की बढ़ोतरी के रूप में होगा।

आप आंदोलन करते रहिए पर सच तो ये है कि यूनिवर्सिटी के पास पैसे ही नहीं है तो वो कहाँ से पैसे लाएगी? सवाल यूनिवर्सिटी से मत पूछिये। सवाल उनसे पूछिये जिन्होंने उच्च शिक्षा के हाथ में कटोरा थमा दिया और 2014 से 2017 तक 2.4 लाख करोड़ रुपये कॉरपोरेट के कर्ज़ को माफ कर दिया।

आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के छात्र हैं। आपके कधों पर इस देश की जिम्मेदारी है। आपको तय करना है कि आप भारत के शिक्षण संस्थानों को ज्ञान और नवाचार का वैश्विक केंद्र बनाना चाहते हैं या अज्ञानी कार्यकर्ताओं की प्रयोगशाला? और हाँ आपके अज्ञानी होने में ही प्रचार तंत्र की जीत है क्योंकि आज भी 5,726 करोड़ प्रचार पर खर्च करने वाला ही बिक रहा है।

डॉ. स्वर्ण सुमन के फेसबुक वॉल से..

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