मीडिया और कम्युनिकेशन को लेकर बहुत पहले से रणनीति तैयार कर रहे थे मोदी, पढ़िए दीपंकर शिवमूर्ति का लेख..

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रवीश कुमार की बातें सुनीं., ग़ुस्सा हैं बीजेपी से.! होना भी चाहिए. 2011 के बाद जब माहौल में कांग्रेस को लेकर गहरी नकारात्मकता थी, तब रवीश के कायक्रमों में बीजेपी प्रवक्ता बिलनागा मौजूद रहते थे। बीजेपी को बायकॉट ही करना था तो सत्ता में आने से पहले ही कर देते! एक तरह से मौक़ापरस्ती तो दिखाई बीजेपी ने मगर यही तो सियासत है ।
हिंदुस्तान टाइम्स समिट में तब के गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी राजदीप के सवाल पर बिफर पड़ते हैं । एक दूसरे इंटरव्यू में मोदी राजदीप और सागरिका घोष का मज़ाक उड़ाते हैं। करन थापर के साथ इंटरव्यू छोड़ देने का तो दंतकथा का दर्जा हासिल हो चुका है । इन सारे वीडियोज़ को यू ट्यूब पर मिलियन्स लोग देख चुके हैं।
बतौर बीजेपी प्रवक्ता दिल्ली के ज़्यादातर बड़े पत्रकारों से मोदी की अच्छी वाक़फ़ियत थी।  मोदी मीडिया और कम्युनिकेशन को लेकर बहुत पहले से अलग रणनीति की तैयारी कर रहे थे । जिसमें शामिल था उन “लिबरल” पत्रकारों को “डिस्क्रेडिट” कर देना ( कम से कम अपने कॉडर और वोटर्स के बीच) जो मोदी या बीजेपी को निशाने पर रखते थे और साम्प्रदायिकता और गुजरात दंगों पर मुश्किल और असहज करने वाले सवाल पूछते थे।
दीपांकर शिवमूर्ति

बीजेपी के इस अभियान में हमारा वोटिंग सिस्टम “दी फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट” मददगार साबित हुआ। जिसमें 31 फीसदी वोट पाकर भी कोई पार्टी 50 फीसदी से ज्यादा लोकसभा या विधानसभा सीटें जीत सकता है ।कोई पार्टी अगर एक तिहाई आबादी को ध्रुवीकृत कर संकेंद्रित रख सके तो वो चुनाव जीत जायेगी और बाकी लोग के विरोध की शिद्दत के कोई मायने नहीं ।इस तंत्र में एक वोटर के “समर्थन की डिग्री और तुलनात्मक पसंद” या कितने वोटर एक पार्टी का “विरोध नहीं” करते, इसको दर्ज करने का कोई उपाय नहीं ।
मैं सोच रहा था कि बीजेपी का कॉडर गुस्सा हो रवीश से, ये तो समझ आता है मगर कई दूसरे “न्यूट्रल” लोगों को क्या परेशानी है? अपने प्रोग्राम में सरकार से सख़्त सवाल करते हैं उनकी रिपोर्टिंग रचनात्मक और वस्तुनिष्ठ होती है और ऐसे समय में जब ज़्यादातर “टॉप” एंकर्स सत्ता की ज़ानिब झुकने को उतावले मालूम पड़ रहे हैं, तो रवीश एक तरह से टीवी न्यूज़ एंकरिंग को संतुलन प्रदान करते हैं फिर दिक़्क़त कहाँ हो रही है? 
मुझे लगता है कि दिक़्क़त का बाइस उनका जर्नलिज़्म नहीं बल्कि एक्टिविज़्म है! जिस तरह से प्राइम टाइम के बाहर निजी भाषणों और गुफ़्तगू में प्रधानमंत्री और बीजेपी को निशाने पर लेते हैं, उससे ये मालूम पड़ता है मोदी या बीजेपी से इनकी कोई जाती अदावत है । यू ट्यूब पर जब लोग उनको सुनते, देखते हैं तो उस बातचीत को उनकी पत्रकारिता से अलग नहीं देखते ( और देखें भी क्यों?) । 
हालांकि उनकी इसी अदा से उनकी “नायक” जैसे छवि भी पुख़्ता होती है । कई लोग समझते हैं के जब हर कोई सत्ता को शीश नवाने को आतुर है तो इस आदमी की प्रतिबद्धता अक्षुण्ण है वो अलग पहलू है, ख़ैर!
तटस्थ होना भर काफ़ी नहीं, अब शायद पत्रकारों को अतिरिक्त प्रयास करना चाहिए “ऑब्जेक्टिव दिखने के लिए भी” ताकि किसी पार्टी, संगठन या विचारधारा का टैग चिपकने ना पाये, अगर कोई संगठन ऐसा प्रचारित भी करे तो आम दर्शक या स्रोता उस अफ़साने को ख़ारिज कर दें । बहुत ख़ामोशी से ऐसा ही काम कर रहा है “दी लल्लनटॉप” और मेरी नज़र में लल्लनटॉप के एडिटर सौरभ द्विवेदी आज भारत के सबसे महत्वपूर्ण पत्रकार हैं।

दीपांकर शिवमूर्ति (पत्रकार,लेखक)
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