जब आदिवासी गाता है' : संगबहिनी में गाते हैं लोक-परलोक, जगह-जहान! : भाग दो

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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद



दिल्ली के परिन्दे प्रकाशन से छपकर आये इस काव्य-संग्रह में कवयित्री की आत्मा समोई हुई है। उनकी कविताएँ अख़बार के ‘डिस्पले बाॅक्स’ की तरह नहीं हैं; इसलिए पढ़ते हुए कई सारे भू-दृश्य बड़े करीने से उकेरे-निरेखे मालूम देते हैं। बकौल कवयित्री-‘‘मेरी कविताओं में प्रकृति है और प्रकृति के लगभग सारे उपादान-ऊँचे पहाड़, नुकीले चट्टान, चौड़े पेड़, धूसर आसमान, जमता बर्फ, बारिश की बूँदें, बाँस का झुरमुट, गाती चिड़िया, रंगीन तितलियाँ, लहलहाते खेत, गर्वीली नदी, स्याह बादल, बीहड़ जंगल, मौन ठहरती झील, कराहता चाँद, फेनिल झाग, उभरते तारें आदि।’’

खेतों के बीच में आश्रय देते स्थल का नाम है-पुरुप जहाँ थके-हारे झूमखेती कर रहे किसान विश्राम किया करते हैं। उन्हीं के बीच जिया बचपन कवयित्री को याद आती है और वह स्मृतियों के दृश्य को आवाज़ देती हैं-‘आज भी/याद है मुझे/छुटपन के/वे अलसाये दिन।/झूमखेती के/बने पुरुप में/मुकु-मबलअ खाना/अपने दो/नन्हें पाँव को/नीचे झुलाते हुए/और/वह दूर नीचे/मेरी आप्पा/मकई, मड़ुआ/और धान का/बचाव करती/बकरियों को/दूर खदेड़ रही।’’

पूरी ज़िन्दगानी खेतों के बीच खपा देने वाली पुरानी पीढ़ी के लिए आसरा एकमात्र प्रकृति का होता है जिसके भरोसे उनकी जिजीविषा को राह मिलते हैं, तो पूरे परिवार को जीने का मकसद। कवयित्री उनदिनी स्मृति के बरास्ते अपनी माँ को याद करती हैं, तो लगता है आज के अधिसंख्य कारीगर, कामगार, कर्मचारी, अफसर, शासनाध्यक्ष, नेता-परेता, मंत्री-हुक्मरां आदि  जिन चीजों में लहुलोट हैं वे काश! उनकी माँ से सीखते कि अपनी चीजों के बचाव और रक्षार्थ कैसे दिन-रात माकुल यत्न-प्रयत्न किया जाता है। अपनी चाकरी ईमानदारी और पूर्ण निष्ठा से उनकी आप्पा करती हैं, तभी तो कवयित्री को ‘मुकु-मबलअ’ मतलब खीरा खाने को मिल पाता है।  क्या यह बात संगत नहीं बैठती कि भावी पीढ़ी ईमानदार, चरित्रवान और राष्ट्रभक्त बन सकेगी, यदि आज हम अपने सभी काम ईमानदारीपूर्वक और सत्यनिष्ठा के साथ निपटाये। अन्यथा राष्ट्रवाद के नकली रूदालीपन से प्रचार परोसे जा सकते हैं, परिर्वतन ला सकना मुमकिन नहीं है।

साझेपन और सहोदरपन की परम्परा अरुणाचली जीवन की खास दिनचर्या है। यह संस्कृति चाहे जिन भी वजहों से फली-फूली हों; उस बारे में अध्येता की तरह न भी सोंचे तो भी आज के टूटन-दरार और एकाकीपन-अजनबीपन के मौजूदा दौर में ये पंक्तियाँ सुहाती बहुत हैं-‘‘बाँस के बने/इस घर में/कुल चौैदह अंगीठियाँ/जब ये सारी/एक साथ/जल उठतीं/तब रोशनियाँ/घर के छिद्रों से/तैरकर बाहर निकलतीं/और बाहर/खूब उजाला फैलता।’’

आजकल तो लोग खुद ही उजाले में रंगे रहने के इतने आदी हो गए हैं कि बाहर के उजाले की परवाह किसी को नहीं है। नकलचीपन ओढ़े हम लोग इतने बातुनी और प्रदर्शप्रिय होते जा रहे हैं कि हम साथपन व संगपन  छोड़ अपने ही ख़्वाबों के ज़मीन-आकाश में विहार कर रहे हैं। वास्तविकता से दूर ऐसी यात्राएँ सुखद तभी तक लगती हैं जब तक इनके ‘फ्लेवर’ का असर हम पर होता है। ऐसे में हमें कभी वह नसीब नहीं हो सकता है जिसका नक़्शा कवयित्री अपनी इस कविता में खींचती हैं-‘‘इन अंगीठियों के/अगल-बगल/पूरा परिवार बैठकर/दिन भर की/किस्से-कहानियाँ/एक-दूसरे को/ सुनाता/और/जल्द ही/खा पीकर/सो जाते सब/कल फिर/मुँह अन्धेरे सबको/खेतों के लिए/निकलना है।’'

{‘जब आदिवासी गाता है’, जमुना बीनी तादर, परिन्दे प्रकाशन, 79 ए, दिलशाद गार्डन (नियर पोस्ट आॅफिस), दिल्ली-110 095}

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