जब आदिवासी गाता है' : संगबहिनी में गाते हैं लोक-परलोक, जगह-जहान! : भाग एक

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डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद



जमुना बीनी तादर युगानुकूल संवाद करती है। उनकी टान-टोन इतनी मजबूत है कि उनके कहे में भीतर बसे प्रतिरोध की धमक स्पष्ट सुनाई पड़ती है-‘उन तमाम/निर्मम तानाशाहों की/वहशी आँखों में/आँखें डाल/उनके मन को पढ़ती/मन की/ग्रंथियों का/रेशा-रेशा खोलती।’

कहन की यह असल ‘रेंज’ कविता के ‘पैटर्न’ में जब सामने आती है, तो एक आदिवासी-दृष्टि की महीनी और दिली सुवास का पता चलता है। ताकत तो माशाअल्लाह जो है सो है। आज के युद्धोन्मादी दौर में जहाँ हमपन बिसर रहा है और ‘मैंपन’ पसरते जा रहे हैं; जमुना बीनी की कविता निर्मम तानाशाहों के भीतर की ग्रंथियों तक अपनी निगाह ले जाती हैं। यही नहीं वह रेशा-रेशा खोलकर उनके भीतर पड़ी गाँठों को मुक्त कर देना चाहती हैं; ताकि रक्त का निर्बाध आवागमन-प्रवाह बनी रहे और मनुष्य अपने सत्पक्ष के साथ जिन्दा रहे। कवयित्री एक यहूदी किशोरी के हवाले से कहती हैं-‘हर मनुष्य के भीतर/एक सत्पक्ष/मौजूद रहता है।’

वैसे समय में जब सजावट की लिखावट बहुतेरे है, कवियित्री अपने लेखन के गर्वबोध से भरी हैं। आदिवासी चेतना से संपृक्त आँखें अपनेआप में प्रयोगशाला होती हैं; तभी तो वह जो कहती हैं वह भाट-चारणों, बौनों-बहुरुपियों के मौजूदा लिक्खाड़ों को आईना दिखाने-सा है-‘कितना अंतर/तुम्हारी/और/हमारी लेखनी में/तुम्हारा लेखन/सहानुभूति से भरा/और/हमारा लेखन/आत्मसम्मान से मदमाता’।

(जारी...)


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