Article : देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उन दिनों भी चुनाव होते थे ।

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चलो वोट करें और नए भारत के निर्माण करें।
भारतीय लोकतंत्र में लोकसभा चुनाव की तारीख घोषित होने के साथ ही, सबसे लंबे और अहम सियासी मौसम का आगाज हो गया है। जिसे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के महापर्व का दर्जा भी प्राप्त है।
चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया है, चुन और नाव । चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रूपी नाव को चुनती है जो जनता को विकास की वैतरणी पार करा सके । भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है । देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे । राजा और सम्राट लोग भावी शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे।
देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उन दिनों भी चुनाव होते थे । तत्कालीन नेता अपने कर्मो से अपना चुनाव खुद ही कर लेते थे ।
बर्तमान परिदृश्य में भी लोकतंत्र में यही देखने को मिलता है। खैर जो भी हो यह लंबे समय से चली आ रही एक लोकतांत्रिक परम्परा भी है जो लोकतंत्र के लिये जरूरी और ग़ैरजरूरी दोनों माना जा सकता है।

हमे बचपन के बातें स्मरण है जब हम छोटे थे तब हमारे मोहल्ले में एक बैनर लगा हुआ रहता था जिस पर लिखा हुआ रहता था;

“कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ” 
"लक्ष्य अटल पर वोट कमल पर‘"

इस प्रकार लुभावने बैनर, पोस्टर अब सब जगह दिखाई देंगे जो की लोकतंत्र के खूबसूरती है।

लेकिन आजकल वर्तमान लोकतंत्र की कुछ विडम्बना भी है जैसे की जाति और धर्म यानी जाति और धर्म की लगातार सुलगती भट्ठी और भ्रष्टाचार की निरंतरता में काफी दम है । लेकिन ये समस्याएं चुनाव की नहीं देश, राजनीति और समाज की समस्याएं हैं और लोकतंत्र के परिपक्व होने और मतदाताओं में नागरिकता की भावना आने के बाद ही इनका समाधान मुमकिन है।
जब से मीडिया लोकव्यापी हुआ है, नतीजे आने से पहले और बाद तक ऐसी सूचनात्मक हड़बड़ियों ने एक ओर जहां पत्रकारिता के प्रति जनविश्वास को ठेस मारी है, दलों और संगठनों, बारी-बारी कभी सरकार, कभी विपक्ष के शीर्ष राजनेताओं को समाज के अप्रिय अवयवों से समझौतापरस्ती, दिशाहीनता, मनमानी, राजकीय हठ और वास्तविकताओं के हनन के लिए विवश किया है। परिणामतः लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था तो डिगी ही है, 
पक्ष हो या विपक्ष, आज उनकी राजनीति छल-प्रपंच, प्रवंचना, प्रोपेगंडा और विज्ञापनों के ढूहों पर जा टिकी है। वहीं पालथी मारे-मारे जनमतवादी लोकतंत्र की दुंधभी बजाती रहती है, भले इसकी कीमत ईवीएम के साथ खुराफातों तक ही क्यों न चुकानी पड़े। अब देखिए, जब विपक्ष जीत जाता है, तब ईवीएम में छेड़छाड़ नहीं हुई रहती है, हार जाता है तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता है, जबकि चुनाव आयोग बार-बार इस सम्बंध में वस्तुस्थितियां स्पष्ट कर चुका है। इससे ये पता लगता है कि विपक्ष को भी 'अपनी तरह की राजनीति' में रत्तीभर भी विश्वास नहीं रहा।

फिर भी कुछ खामियां होने के बावजूद भी भारतीय लोकतंत्र महान है और हमेशा रहेगा।मतदान स्थल पर लगी हुई मतदाताओं की लम्बी पंक्ति इस सत्य की प्रतीक है कि भारत जैसे देश में भी लोकतंत्र के प्रति कितनी आस्था का भाव जीवित है । 
लोकतंत्र में जहाँ चुनाव का महत्त्व है वहीं वोट डालना भी प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है, तो आइये देश के भविष्य,शक्तिशाली,और विकसित राष्ट के संकल्प ले 21वीं सदी के नए भारत के निर्माण हेतु मतदान करे।

विवेक शर्मा काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के छात्र हैं
(ये इनके निजी विचार हैं )


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