हम औरतें : मनुष्य पहले, ‘मेल-फिमेल’ बाद में

Desk
0
अंतर करने के लिए तर्क नहीं, बहाना भी काफी होते हैं। बिना बाट चढ़ाये भी तराजू के दोनों पलड़े में असंगति पैदा की जा सकती है। कई सारी ख़राबियाँ हमारे द्वारा उपजाई होती है जिन्हें हम ढोते चले जाते हैं। स्त्रियों के मामले में यह ज्यादा होता है। हम औरतें अपने बारे में कम बोलती हैं, दूसरे इस बारे में बोलने का विशेषाधिकार अधिक रखते हैं। हमारा हँसना और रोना भी उनके द्वारा परिभाषित है। मनमानी व्याख्या और अजीबोगरीब विश्लेषण करने को आदी हमारा यह समाज औरतों के साथ जीना खूब चाहता है, पर जीने देना बिल्कुल नहीं।

आज हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों-शोधार्थियों ने बिना किसी लेक्चरर-प्रोफेसर के एक बढ़िया काम कर यह साबित कर दिखाया कि आपसी संवाद एवं बातचीत के लिए आयोजन-कार्यक्रम की दिन-तारीख़ की प्रतीक्ष बेकार है। 08 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर प्रियंका के संचालन, रौशन कुमार के धन्यवाद ज्ञापन के बीच काफी कुछ घटित हुआ। सवाल-जवाब भी खूब हुए। सहमति-असहमति के स्वर भी दिखें जिनका उन्होंने आपसदारी के बहस-मुबाहिसे द्वारा अंजाम तक पहुँचाया। प्रयोजनमूलक हिंदी और एम.ए. (हिंदी) के सभी छात्र-छात्राओं ने अपराह्न दो बजकर तीस मिनट पर कार्यक्रम शुरू की जिसे समाप्त होने तक दो घंटे कैसे गुजर गये मालूम ही न चला।

‘हम औरतें’ शीर्षक तले चले इस कार्यक्रम में मुख्य बातें थीं कि समय बदला है, तो स्त्रियों के हक-हकूक की बात मुखर रूप् से उठने और उठाये जाने लगी हैं। महिला अयोग होने और स्त्रियों से सम्बन्धित नियम-कानूनों ने एक बेहतर माहौल का निर्माण किया है। चुप्पी-ख़ामोशी टूट रही है। अब आवाजें दबी-घुटी नहीं बल्कि समाज के सामने चोट-प्रहार करती दिख रही हैं।

 बदलते ज़माने में लड़कियों ने हर मोर्चे पर अपनी कामयाबी के परचम लहराये हैं। यह कहना कि घरेलू स्त्रियाँ पुरुषों के मुकाबले कमजोर होती हैं या यह कि उनके काम उतने कठिन नहीं होते हैं; दरअसल, काम की प्रकृति न जानने के कारण होता है। हर घर में स्त्रियाँ सुबह से शाम तक खटती, काम करती नज़र आएंगी; पर हमारी दृष्टि में उनका काम आसान मालूम देता है; क्योंकि हम इन कामों के कार्यभार से मुक्त हैं, स्वतन्त्र है। आजकल पुरुष-स्त्री सभी जान गए हैं कि बेटे-बेटियों में अन्तर पुरानी बात है। जनजातीय समाज में इसीलिए लड़कियों को आगे करने की पूरी कोशिश जारी है। हम बेटियाँ पढ़ रही हैं, उन्मुक्त घूम रही हैं, बेलाग-बेटोक बोल रही हैं और सबसे अच्छी बात अपने निर्णय खुद कर रही हैं।


एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)