MaTVala : शिवपूजन सहाय की पत्रकारिता और मतवाला-मंडल By Rajeev Ranjan Prasad

Sachin Samar
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सबसे पहले उस ध्रुवकाल को समझना आवश्यक है जिसे हिंदी नवजागरण कहा गया है। यहाँ ध्रुवकाल कहने का आशय पथ-प्रदर्शक बनकर उभरे उस नवीन चेतना और वैचारिक-संक्रांति से है जिसमें सम्पूर्ण भारत का समग्र व्यक्तित्व और उसमें अन्तर्भूक्त आत्मा शामिल थी; न कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध जैसे अलग-अलग समूह, समुदाय, सम्प्रदाय, पंथ, मार्ग, मठ, पीठ इत्यादि। अपनी सीमाओं के बावजूद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिंदी नवजागरण के पुरोधा थे और सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रकारिता के आधारस्तंभ, धुरी-नियामक, केन्द्र भी। उन्होंने अपने युग की ज़मीनी सचाइयों को पहचानने की कोशिश की। फलतः अराजक सामाजिक कुरीतियों-अंधविश्वासों-कर्मकाण्डों से जकड़ी मूक-बधिर जनता को साफ ज़बान में समझदार बात कहने वाले कुछ ऐसे लोग मिल गए, जो पहले के लोगों से भिन्न थे। उनकी कहनशैली हिन्दी का नवभाषिक संस्कार ग्रहण किए हुए थी। यह 1873 ई. के इर्द-गिर्द बनी-बुनी जा रही वही हिन्दी थी जिसके लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘नई चाल में ढलने’ का मुहावरा लोकप्रिय किया था। कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैग्ज़ीन, बाला-बोधिनी आदि की लोकप्रियता असाधारण रही। दरअसल, भारतेन्दु तद्नुकूल भाव-संवेदना एवं सामूहिकता-बोध के मानवीय-विस्तार (मानव-संचार) पर अधिक बल दे रहे थे। जनसमूह के प्रति विशेष आग्रही तथा जनपक्षधर रचनाओं के जबर्दस्त पैरोकार होने के कारण हिंदी नवजागरण की नवचेतना विकसित करने में वे और उनकी मण्डली काफी हद तक सफल रही। वर्ण-व्यवस्था के कुंठित अवधारणा को प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से बचाते हुए भारतेन्दु मण्डली ने कुलजातीय-चेतना को पहली बार राष्ट्रीय-संस्कृति से जोड़ा। औपनिवेशिक साम्राज्य से मुक्ति के ठोस आग्रह के बावजूद भारत की मूल-संवेदना, सरोकार, संस्कार, सामूहिकता, लोकचेतना, जनपक्षधरता, प्रतिबद्धता, त्याग, समर्पण, उत्सर्ग इत्यादि को सम्पूर्णतः शामिल न किया जाना भारतेन्दु मण्डली के हिन्दूवादी प्रवृत्तियों के कारण हुआ जबकि राष्ट्र-गौरव के निर्माण में जुटी भारतेन्दु-मण्डली के सदस्यों की स्पष्ट घोषणा थी-‘स्वाधीन मनोवृत्ति तथा अकंुठ चित्तवृत्ति’। अतएव, इसकी प्रतिपूत्ति में नई धारा को हिंदी नवजागरण का ध्वजावाहक बनना पड़ा जिसमें ज्योतिबा फूले एवं रमाबाई फूले का नाम बेहद महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि ‘‘इन वर्षो में हिन्दी की पत्रकारिता का अनेक स्तरों पर विकास हुआ। राष्ट्रीय चेतना, जागरण, देशप्रेम, समाज सुधार जैसे अनेक स्तरों पर पत्रकारिता समृद्ध हुई जिसमें भाषा के स्तर पर भी समृद्धि लक्षित की जा सकती है। इस दौर के प्रकाशनों में सहज ही देखा जा सकता है कि राजनीतिक प्रश्नाकुलता भी बढ़ी।’’ (साहित्यिक पत्रकारिता, ज्योतिष जोशी; पृ. 17)

(महिला महाविद्यालय, बीएचयू में 19-21 जनवरी, 2018 के बीच हुए 
राष्ट्रीय संगोष्ठी में  डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद द्वारा पढ़ा गया शोध-पत्र)

क्रमशः जारी..

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