"जीवन की धज्जी उड़ाकर सुखी मरूंगा" हमारे नामवरजी तो नहीं रहे !

Sachin Samar
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रात भर नींद नहीं आई। सिर्फ बुरे सपने आते रहे।न जाने क्यों आदत के विरुद्ध 2 बजे फेसबुक खोला...कई पोस्ट...नामवरजी नहीं रहे। 11.50 पर निधन हुआ।साढ़े बानवे की उम्र थी। जाने का बहाना कुछ ही दिन पहले मिला..!

नामवर जी को अज्ञेय की पंक्ति और मार्क्स की नास्तिकता इतनी पसंद थी कि वे अक्सर कहते-मैंने उड़ाई हैं
जीवन की धज्जियां /मैं मरूंगा सुखी। अच्छा हुआ कि शताब्दी छूने के करीब पहुंचकर वे किसी के सहारे के अहसान से मुक्त रहे। जीवन भर शब्द दुनिया की तरह विचारों को धुनते रहे और आखिरी सांस तक आलोचना की धुनकी का संगीतउनके गिर्द फूटता बहता रहा।

अब जब वे नहीं हैं हिंदी आलोचना को उनकी ताकत और ग़ैरमजूदगी का पता ज्यादा रहेगा।हिंदी आलोचना के शिखर तो नामवरजी थे ही गहराई और विस्तार भी थे।बनारस के जीयनपुर जैसे गांव से चलकर किसान के एक बेटे ने अस्सी की गलियों को जीते हुए पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी और त्रिलोचन जैसे दिग्गजों से साहित्य संस्कार लिया। तब भी काशी में निठल्ले और शब्दहन्ता कम नहीं थे।आज भी केदार मंडल की अस्सीवाली चाय दूकान है जहां कामरेड
दोस्त केदार रोज एक सिक्का नामवर के जेबे में डाल देता था, और लंका पर त्रिलोकी जी का यूनिवर्सल बुक सेंटर जहां से न जाने उधार की कितनी किताबें उन्होंने खरीदी थीं। नामवर जी जमीन से उठकर शिखर तक पहुंचने वाले विरल साहस के विवादी आलोचक थे।
नामवर जी के नहीं होने पर आज संस्मरण का झरना खुल गया है। मेरे जैसा साहित्य का हलवाहा लगातार नामवरजी से डरता और सीखता रहा। जेएनयू जब मैं पहुंचा तब वे सेवानिवृत थे और बोर्ड पर अम्रेट्स प्रो की जगह उनका नाम सफेद अक्षरों में उगा था। वे कक्षा तो नहीं लेते थे,शोध कराते थे और यदाकदा भाषण देने आते थे।लेकिन दिल्ली की जिस गोष्ठी में नामवरजी न हो वह मरियल और ग़ैरउत्तेजक सुनने में ही लगती थी।नामवरजी के डर से कई आलोचक आयोजक से समीकरण बैठाते थे और मैदान भी छोड़ देते थे।
तर्क और युक्ति से विचार के रेशे वे इतने सलीके से उतारते थे जैसे केले के पत्ते खुल रहे हों।और अंत में बनारसी दंगल की तरह चित्त कर पान का दोना खोलते और तिसपर 120 नम्बर का जर्दा डालकर फीकी मुस्कान फेंकते।नामवरजी की वाचिक आलोचना का विरोध करनेवालों की कतार में मैं भी था लेकिन आज मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना के वाचिक लोकवृत के वे सबसे बड़े निर्माता हुए।इस अर्थ में वे प्रिंट वाली आधुनिकता को अपनी जातीय ज्ञान परंपरा से चुनौती देने वाले बौद्धिक हैं। जब 2005 में नामवरजी की पहली वाचिक किताब आलोचक के मुख से आई तो हिंदी जगत में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। उसकी पहली कटु समीक्षा मैंने समयांतर में लिखी थी।मैनेजर पांडेय,विश्वनाथ त्रिपाठी,राजेन्द्र यादव सभी खुश हुए।साथ ही कहा कि नामवरजी के बोर्ड में मत जाना।धारणा साफ है कि बीएचयू में तीन महीने बाद ही उनकी कलम से मेरी नियुक्ति हुई।
नामवर जी के पहले दर्शन अपनी जन्मभूमि में ही हुए।महाकवि दिनकर की प्रतिमा का लोकार्पण जीरोमाइल, बेगूसराय में होना था। राज्यपाल द्वारा लोकार्पण के बाद घोषणा हुई कि नामवर जी का संबोधन होगा-त्रिलोचनी सानेट की तरह एक विराट पुरुष!चौड़ी छाती,लंबी काया, सधे कदम,ऊंची नाक,तपते लोहे सा रंग।पहली ही आवाज़ ने बांध लिया-छह सौ साल तक विद्यापति की धरती एक महाकवि का इंतज़ार करती रही।वह हसरत तब पूरी हुई जब इस धरती को दिनकर जैसा महाकवि मिला।चारों ओर जन तालियों की गूंज।फिर तो दिनकर भवन में एक लंबा व्याख्यान हुआ। गर्जन तर्जन वाले दिनकर और जनपद में उलझा मैंने जब दिनकर के विज्ञान दर्शन और कला पर सुना तो हैरान रह गया।नई लीक,नई भाषा,नई वाचिक भंगिमा। ये थे बेगूसराय में नामवर  सिंह। मैंने उस भाषण को हिंदुस्तान में छपवाया। बाद में नामवर जी के शिष्य और मेरे गुरु प्रो. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने प्रलेस की स्मारिका में भी उस भाषण को छापा। दिनकर वाम खेमे में लंबे वक्त तक उपेक्षित थे। नामवर जी से सिलसिला शुरू हुआ सो आजतक जारी है..

रामाज्ञा शशिधर  ( कवि , लेखक , पत्रकार व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अ.प्रोफेसर हैं ) के फेसबुक वाल से ।
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