मांदर की थाप पर एक आदिवासी मुख्यमंत्री का शपथ और गैर आदिवासी में उसकी स्वीकार्यता पर सवाल

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बात व्यक्ति विशेष हेमंत सोरेन के मुख्यमंत्री बनने की नहीं बल्कि बात आदिवासी समाज की स्वीकार्यता की है। भारत में आदिवासियों की आबादी 8% है परंतु देश के प्रमुख संस्थाओं में इनका प्रतिनिधित्व गिनती का पहला अक्षर 1 भी नहीं है। यह समाज सबसे लंबे समय से शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है और इसके विरुद्ध संघर्ष करता आ रहा है। आज भी जनमानस में यह धारणा आम है कि आदिवासी जंगली, अनपढ़ और जाहिल होते हैं। आखिर औपनिवेशिक नृवंशविज्ञानियों के नस्ल आधारित सिद्धांतों पर आधारित यह धारणा आज भी क्यों है? कभी इस पर सोचिए। 

प्राचीन काल से ही आदिवासियों को निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया गया। आदिवासियों ने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई 1857 से पहले लड़ी है। चुआर विद्रोह विद्रोह (1798-99), हो विद्रोह (1820-22,1831,1837), संथाल विद्रोह (1855-56), खोंड (डोंगरिया खोंड) विद्रोह (1836-56),  सवार विद्रोह (1856), भील विद्रोह,  रामोसी विद्रोह, कोल विद्रोह, रम्पा विद्रोह (1879,1922-24), चेंचू आदिवासी आन्दोलन (1898), मुंडा विद्रोह, उराँव विद्रोह और न जाने कितने विद्रोह और आंदोलन उनके संघर्षों की गाथा कहते हैं। पर इतिहास के पन्नों में आदिवासी नायकों को वो जगह नहीं मिल पाई जिसके वो हकदार थे। यहां भी बेचारे ऐतिहासिक जमीन से बेदखल कर दिए गए। मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ आज किसी भी छात्र से आप भारतीय इतिहास के नायकों का नाम पूछेंगे तो वो शायद ही किसी आदिवासी नायक का नाम बता पायेगा। एक तरफ इतिहास में अपनी जमीन बचाने महाराणा प्रताप भी युद्ध में उतरे थे और लक्ष्मी बाई भी दूसरी तरफ आदिवासी योद्धा भीमा नायक भी अपनी जमीन बचाने को लेकर लड़े थे परंतु कितने को पता है? संदर्भ एक है परंतु महिमामंडन और गुणगान महाराणा प्रताप और लक्ष्मी बाई का है। 

आजादी की लड़ाई में गांधी के सत्याग्रह से लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में आदिवासियों ने खुलकर समर्थन दिया था। आजादी से ठीक पहले जब नए भारत की नींव रखने की बात आयी तो दुर्भाग्य से उस वक़्त भी आदिवासियों की तरफदारी करने वाला कोई नहीं था। जयपाल सिंह मुंडा जैसे एक्का-दुक्का स्वर थे जिन्हें दबा दिया गया। सबने अपने-अपने अधिकार ले लिए पर आदिवासियों को मतदान का अधिकार भी नहीं देने की वकालत की गयी। साईमन कमीशन से आदिवासियों को मताधिकार से वंचित रखने की बात कही गयी। संविधान निर्माताओं के एक वर्ग का मानना था कि ‘आदिवासी, मताधिकार पाने के योग्य नहीं हैं।’ उनका मानना था कि आदिम जनजातियों में अब तक इतनी राजनीतिक समझ विकसित नहीं हो सकी है जिससे उन्हें मताधिकार जैसा महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किया जाए। संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के लिए 'आदिवासी' शब्द प्रयोग किये जाने की मांग की थी परंतु आदिवासियों को संविधान में आदिवासी होने की गरिमा से वंचित कर दिया गया और उन्हें 'अनुसूचित जनजाति' शब्द दिया गया। 

आजादी के बाद भी आदिवासी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे अपनी ही जमीन पर कृषि मजदूर बन गये और उन्हें खानों, बागानों और फैक्ट्रियों में कार्य करने के लिए तथा कुलीगीरी करने के लिए विवश किया गया। आजादी के 60 वर्ष बाद आदिवासियों के लिए 'वन अधिकार कानून 2006' बना जिसके तहत अनुसूचित जनजाति के सभी समुदायों को वनों में रहने और आजीविका का अधिकार मिला। यहां भी आदिवासी समुदाय के साथ अन्याय हुआ। उन्हें पर्याप्त जमीन नहीं दी गई। वर्तमान में आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी जमीन बचाने की है। कॉरपोरेट सेक्टर को अपने पाँव पसारने के लिए जमीन की जरूरत है। जमीन है नहीं। इसलिए जंगल को जमीन में तब्दील करने की कवायद तेजी से हो रही है। कॉरपोरेट फिर से अंग्रेजों के सभ्य-असभ्य के सिद्धांत पर चल रहा है जहां उसके लिए मुनाफा ही मुनाफा है तो आदिवासियों के लिए अस्तित्व और पहचान का संकट मंडरा रहा है। 

आदिवासी समाज के लिए झारखंड जैसे राज्य से एक नये राजनीतिक युग की बयार चली है जो स्थानीयता को तरज़ीह देती है और उसके लिए राष्ट्रीय राजनीति को भी तल्ख़ अंदाज में नकार देती है। इसे सहज स्वीकार्य किया जाना चाहिए और इसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि आदिवासी आदिम साम्यवाद के प्रवर्तक हैं। वे प्रकृति के सबसे करीब हैं। प्रकृति के संरक्षक हैं। वे सामूहिकता में जीते हैं। आपसी प्रेम, एकता एवं समृद्ध संस्कृति उनकी पहचान है।

डॉ. स्वर्ण सुमन 

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