मेरी डायरी के अधखुले पन्ने

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कितने मूर्ख होते हैं हम लोग ...भावनाओं की अंतहीन धारा में बहते रहते हैं...हमेशा अपने अंतर्मन में एक बच्चे को जिंदा रखने की कोशिश में कितनी चोट खाते हैं..हर बार अचानक से एक ठोकर लगती है और हम खुद को लहूलुहान एक ऐसी जमीन पर पाते हैं जो बेपरवाह लोगों से घिरी पड़ी है...।

कितना अजीब होता है ना जीवन के ककहरे में तमाम बातों को नज़रंदाज़ करते हुए... छल ,कपट से दूर सुकून के पलों की तलाश में उन्हीं बातों को सीखते और बीज के रूप में बोने की कोशिश करते रहना जिससे सुख की छाया नसीब हो...पर संवेदनहीन उपेक्षाओं द्वारा अपमानों का घूँट पी कर...जीवन की तल्ख़ धूप में चलने को विवश होना पड़ता है...किताबी बातों को जीने की कोशिश में हर बार जीवन की राह में फिसलना पड़ता हैं..।

अगर आपके अंदर भी भावनाएं जीवित हैं तो उन्हें कभी बाहर मत आने दीजिएगा...लोगों के सामने व्यक्त भी मत कीजिएगा..या तो उन्हें मन की परतों से ढके रहिएगा या कभी वक्त निकालकर इनका गला घोट दीजिएगा...अन्यथा कुचले जाने के बाद खुद को तड़पते देख पाना बेचैनी और दुःख की पटकथा लिखने जैसा है...!


©️विमल

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