काशी जर्नी है, वाक नहीं : रामाज्ञा शशिधर

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काशी पहले साधना थी,अब जुगाड़ है; पहले शांति थी,अब भ्रांति है; पहले सादगी थी,अब तड़क भड़क है; पहले सत्य थी,अब मिथ्या है; पहले विविधता थी,अब केन्द्रिकता है; पहले धुआँस कचौरी थी,अब स्मोक फ्लेवर्स पिज़्ज़ा है; पहले सेल्फ थी,अब सेल्फी है;पहले संगीत थी;अब शोर है;पहले पांव पैदल थी;अब पैदल का ड्रामा है।काशी जो पहले स्प्रिचुल जर्नी थी,अब अर्धसत्य फिल्मी घाट वाक है।
                 त्रिलोचन के नगर में पांव पैदल हर कोई चलता ही है,इसलिए मेरे जैसों का डेढ़ दशक से गली,घाट,मुहल्ला अटकना भटकना कोई चमत्कार तो है नहीं।बुनकरों से लेकर गंगापुत्तरों के बीच इतना घुल गया कि पंद्रह साल का समय पंद्रह युग जैसा लगता है।लेकिन यह भी कोई विज्ञापन का विषय नहीं।
          मजा तो तब आया जब पिछले दिनों सांध्य सचल साधना के दौरान घाट पर कुछ पोस्टर और हेरिटेज वाल पर आर्टिफिशियल पेंट से लिखा देखा-घाट वाक।
कुछ देर तक सोचने पर लगा कि काशी 2014 के बाद तेजी से बदल रही है।
           घाट घाट रेस्टोरेंट,होटल,पिकनिक स्पॉट,पिज्जा बर्गर कैफे से लेकर कानफाडू लाउडस्पीकरों का आरती युद्ध शुरू हो गया है।काशी के घाट शांति,साधना,शव साधना और शिव साधना से डिस्प्ले सेंटर  हो गए हैं।पीएम के प्रोग्राम इस विज्ञापन का पटेल स्टेच्यू जितना भव्य और ऊंचा था।
              एक दिन डॉ विजयनाथ मिश्र शाम को दो अपरिचित सज्जन के साथ मिले और बताया कि वे घाट वाकर हो गए हैं जिसका वार्षिक उत्सव है।आमंत्रण भी मिला।मैंने आदतन पूछ ही लिया कि आपकी टीम के अन्य नामचीन वाकर कहाँ हैं?उन्होंने दो गगरी लिए एक सेवैत की ओर इशारा किया और बोले इस ट्रेन की अलग अलग बोगियां गतिशील हैं।
          चौरासी घाटों के इस यात्री को आजतक अन्य बोगियां नहीं मिली हैं। दिन,महीने,साल भी वक्त के टुकड़े हैं।अक्सर मेरे पांव सचल रहते हैं।
            दोस्तो!यह उत्तर सत्य का समय है। सब कुछ उलट पुलट है। अस्सी से राजघाट तक न कितने दिनों महीनों का सफर है,यात्रा है,जर्नी है,यात्रा और अंतर्यात्रा है,साधना है।
           लेकिन जो कभी घाट पर नहीं दिखते वे विज्ञापन में चौचक और चौरस दिखाई पड़ते हैं तो अहसास होता है कि काशी के घाटों पर पहले के गंगापुत्रों,तीर्थ पुरोहितों,साधकों,गाउलों, खोटरों, भड्डरों, रगुलों से अलग यह कौन सी नई संस्कति बन रही है जिसमें कोई एक मणिकर्णिका की तरह अपने कंधे पर दृश्य से ज्यादा अदृश्य शवों को शिव बनाने का आह्वान कर रहा है।
           कवि केदार बनारस कविता में सही कहते हैं यह है भी और नहीं भी।आजकल तो जो है वह नहीं है;जो नहीं है वही है।यह है काशी का उत्तर सत्य।
            पांव हैं तो चलिए,उन्हें मुख के दो जबड़े मत बनाइए।चटोर युग है,कोई भी जीभ बनकर चाटने सहलाने लगेगा।फिर जो बचेगा वह युग जख्म!

 अंत में,जो अनकहा है वह तस्वीरों ने कहा है।
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